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नयी बात लाता हूँ

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हर दिन ही तो ,
मैं खुद को तमाशा ,
बनाता हूँ ,
ना जाने कितने ,
शब्दों में रंग के ,
कोई बात लाता हूँ ,
तुम अपने नशे में ,
रोज तौलते हो ,
शब्द और मुझको,
तुमसे कह कर भी ,
दुनिया के लिए ,
क्या पाता हूँ ?
डंक मार दोगे,
आदमी का दर्द ,
जाने बिना एक बार ,
ये जान कर भी मैं ,
बिच्छू का सच लिए ,
आ जाता हूँ ,
हर दिन ही तो ,
मैं खुद को तमाशा
बनाता हूँ |
ना जाने कितने
शब्दों में रंग के
कोई बात लाता हूँ …………………..शायद हम कुछ समझा नहीं चाहते इसी लिए किसी भी सुधर या नए कल में वक्त लगता है ……………..आलोक चान्टिया , अखिल भारतीय अधिकार संगठन

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