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तोड़ का निशा का जाला उजाला आया ………………..पर खुद को अँधेरे में कितना पाया ……चीख रही थी धरा अपने संग संसर्ग से …………….भोग्या नही हूँ मैं मानव तेरे प्रसंग से ……………..क्यों खोद कर तन मेरा मन जलाया ………………..प्रकृति कह चोट देने का कौन मर्म पाया ……………….माना मैं नारी हूँ गंगा की ही तरह आलोक …………………पर मैली , बंजर क्यों करते हो मेरी काया ……………….बलात्कार के खिलाफ आवाज़ ही नहीं एक क्रांति का जय घोष कीजिये ताकि लड़की न तो चारदीवारी में सिमटे और ना ही अपनी मौत की भीख मांगे …………………..यह सच है कि प्रकृति में हम एक दुसरे के पूरक है पर बिना समय बदल का बरसना सिर्फ तांडव मचाता है …………..आज फिर प्रकृति से छेड़ छाड़ हुई है ……………….ख़त्म कर दो उन हाथो को जिनसे वो जार जार हुई है ……………….मुझे भारतीय होने में शर्म आती है ………..सुप्रभात
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